ऊँची पहाड़ी से दूर नीचे दिखता एक गाँव,
पास ही है लहलहाते हुए खेत, वो झील...
कुछ एक कुँऐ, सात-आठ घर ,
ठ्हरी हुई है शाम, जहाँ पल भर
कुछ पीपल के पेड़, बाँस के झुर्-मुट
जो शायद देते हैं छाँव,
इस पहाड़ी से, कितना सुंदर लगता है ये गाँव...
आइये! इस गाँव के अंदर चलते हैं
पीपल के नीचे कोई बैठा है, उससे मिलते हैं
शायद कोई चरवाहा है, बकरियां चरा रहा है
मुझे देख कर विचलित है, कुछ घबरा रहा है।
नहीं भाई ! तुम्हरा कुछ नहीं बिगाड़ेगें
बेकार में ही डरते हो
अच्छा ये तो बताओ,
क्या करते हो ??
जी... बकरियां चराता हूँ !
... पहाड़ी से तुम्हारा गाँव बहुत सुंदर दिख़ता है,
उस झील के पीछे डूबता हुआ सूरज,
मन को बहुत हर्षित करता है।
साहब! इसी झील में तो डूबें हैं भाग्य हमारे,
डूबें वो गाँव, खेत, सारे वो घर हमारे।
कल तक थी जहाँ खुशहाल दुनिया हमारी,
आज बनी है वहाँ ये झील तुम्हारी,
जहाँ डूबता है रोज सूरज तुम्हारा,
अपना सूरज जो ड़ूबा, अब तक उगा ही नहीं,
सुबह कब होगी, पता ही नहीं।
जाओ... बाबू जाओ! ..... घर जाओ,
कल आने वाली खुशियों के,
जाकर सपने सजाओ।
उसकी बात में कडुआहट, आँखो में दर्द था,
जीवन से हताश, चेहरा सर्द था ...
वापस आकर सोचता हूँ,
प्रगति क्यों नहीं सबके लिये समान है ?
क्यों! किसी की इमारत के नीचे दबा,
आज किसी का शमशान है ।