वय्था
कहा था जब मैंने, मत जाओ उस पार
न मानी मेरी बात, किया इंकार और नाराज भी मुझे
आश्चर्य होता है ???
जब देखता हूँ प्रतिबिम्ब तुम्हारा
साहिल पे बैठकर इस पार कभी,
लहरों पर सिहरन का अहसास होता है,
प्रतिवेदना सिमट जाती है तब, उन शांत झुरमुटों के बीच,
मध्यम हवा जिनके कोनो को छूकर निकल गयी थी कभी,
आज संन्नाटे की चादर ओढी है उसने,
करो इंतजार …….. पर
अब अक्स न बन पायेगा मेरा कभी,
घुल गया था मैं, उसी हवा के झोकों में !
द्वारा : राहुल