कहता तुमको अपना, बनते तुम मित्र मेरे,
समझते पीड़ा को मेरी, सांत्वना देते,
करते तुम मुझसे बात,
थका सा! जब बैठा था मैं,
घूम घरों से बोझिल पग में,
होकर अपमानित सा....
दृष्ट हुआ था तब मुझको,
एक “ज्योति पुँज” तुममें, तुमसा,
दिखा सकता था जो राह,
बन सकता था पथ-प्रदर्शक मेरा !
तुम आये, छा गये मस्तिष्क पर मेरे,
फिर चले गये,
ज्ञात हुआ तब मुझको,
जिसको समझा “ज्योति पुँज”,
था वो एक “पुच्छल तारा” !
राहुल (1993)